Vidur Niti

Vidur Niti, mainly on the science of politics, is narrated in the form of a conversation between Vidur and King Dhritraashtra in the great epic Mahabharata.

Vidur was known for his wisdom, honesty and unwavering loyalty to the ancient Aryan kingdom of Hastinapur.

Here is some slokas of Vidur Niti :

Image of Vidur

असूयको दन्दशूको निष्ठुरो वैरकृच्छठः। स कृच्छं महदाप्नोति नचिरात् पापमाचरन् ॥

भावार्थ :

अच्छाई में बुराई देखनेवाले, उपहास उड़ाने वाला, कड़वा बोलने वाला, अत्याचारी, अन्यायी तथा कुटिल पुरुष पाप कर्मो में लिप्त रहता है और शीघ्र ही मुसीबतों से घिर जाता है।

अनुसूयुः कृतप्रज्ञः शोभनान्याचरन् सदा। नकृच्छं महदाप्नोति सर्वत्र च विरोचते ॥

भावार्थ :

जो व्यक्ति किसी की निंदा नहीं करता, केवल गुणों को देखता है, वह बुद्धिमान सदैव अच्छे कार्य करके पुण्य कमाता है और सब लोग उसका सम्मान करते हैं।

आक्रु श्मानो नाक्रोशेन्मन्युरेव तितिक्षतः। आक्रोष्टारं निर्दहति सुकृतं चास्य विन्दति॥

भावार्थ :

अपनी बुराई सुनकर भी जो स्वयं बुराई न करें, उसे क्षमा कर दें। इस प्रकार उसे उसका पुण्य प्राप्त होता है और बुराई करनेवाला अपने कर्मों से स्वयं ही नष्ट हो जाता है।

नाक्रोशी स्यात्रावमानी परस्य मित्रद्रोही नोत निचोपसेवी। न चाभिमानी न च हीनवृत्तों रुक्षां वाचं रुषतीं वर्जयीत॥

भावार्थ :

यादृशैः सत्रिविशते यादृशांश्चोपसेवते। यादृगिच्छेच्च भवितुं तादृग् भवति पूरुषः ॥

भावार्थ :

व्यक्ति जैसे लोगों के साथ उठता -बैठता है, जैसे लोगों की संगति करता है, उसी के अनुरूप स्वयं को ढाल लेता है।

मर्माण्यस्थीनि ह्रदयं तथासून् ,रुक्षा वाचो निर्दहन्तीह पुंसाम्। तस्माद् वाचुमुषतीमुग्ररुपां धर्मारामो नित्यशो वर्जयीत॥

भावार्थ :

कठोर बात सीधी मर्मस्थान, हड्डियों तथा दिल पर जाकर चोट करती है और प्राणों को टीसती रहती है, इसलिए धर्मप्रिय व्यक्ति को ऐसी बातों को हमेशा के लिए छोड़ देना चाहिए।

यदि सन्तं सेवति यद्यसन्तं तपस्विनं यदि वा स्तेनमेव। वासो यथा रङ्गवशं प्रयाति तथा स तेषां वशमभ्युपैति ॥

भावार्थ :

कपड़े को जिस रंग में रँगा जाए, उस पर वैसा ही रंग चढ़ जाता है, इसी प्रकार सज्जन के साथ रहने पर सज्जनता, चोर के साथ रहने पर चोरी तथा तपस्वी के साथ रहने पर तपश्चर्या का रंग चढ़ जाता है।

अतिवादं न प्रवदेत्र वादयेद् यो नाहतः प्रतिहन्यात्र घातयेत्। हन्तुं च यो नेच्छति पातकं वै तस्मै देवाः स्पृहयन्त्यागताय ॥

भावार्थ :

जो न किसी को बुरा कहता है, न कहलवाता है; चोट खाकर भी न तो चोट करता है, न करवाता है, दोषियों को भी क्षमा कर देता है -देवता भी उसके स्वागत में पलकें बिछाए रहते हैं।

न जीयते चानुजिगीषतेऽन्यान् न वैरकृच्चाप्रतिघातकश्च। निन्दाप्रशंसासु तमस्वभावो न शोचते ह्रष्यति नैव चायम् ॥

भावार्थ :

जो व्यक्ति न तो किसी को जीतता है ,न कोई उसे जीत पाता है ;न किसी से दुश्मनी करता है, न किसी को चोट पहुँचाता है; बुराई और बड़ाई में जो तटस्थ रहता है; वह सुख़ -दुःख के भाव से परे हो जाता है।