Vidur Niti

Vidur Niti, mainly on the science of politics, is narrated in the form of a conversation between Vidur and King Dhritraashtra in the great epic Mahabharata.

Vidur was known for his wisdom, honesty and unwavering loyalty to the ancient Aryan kingdom of Hastinapur.

Here is some slokas of Vidur Niti :

Image of Vidur

प्रसादो निष्फलो यस्य क्रोधश्चापि निरर्थकः। न तं भर्तारमिच्छनित षण्ढं पतिमिव स्त्रियः ॥

भावार्थ :

जो थोथी बातों पर खुश होता हो तथा अकारण ही क्रोध करता हो ऐसे व्यक्ति को प्रजा राजा नहीं बनाना चाहती , जैसे स्त्रियाँ नपुंसक व्यक्ति को पति नहीं बनाना चाहती।

कांश्चिदर्थात्ररः प्राज्ञो लघुमूलान्महाफलान्। क्षिप्रमारभते कर्तुं न विघ्नयति तादृशान् ॥

भावार्थ :

जिसमे कम संसाधन लगे ,लेकिन उसका व्यापक लाभ हो -ऐसे कार्य को बुद्धिमान व्यक्ति शीघ्र आरंभ करता है और उसे निर्विघ्न पूरा करता है।

यस्मात् त्रस्यन्ति भूतानि मृगव्याधान्मृगा इव। सागरान्तामपि महीं लब्ध्वा स परिहीयते ॥

भावार्थ :

जैसे शिकारी से हिरण भयभीत रहते हैं ,उसी प्रकार जिस राजा से उसकी प्रजा भयभीत रहती है ,फिर चाहे वह पूरी पृथ्वी का ही स्वामी क्यों न हो ,प्रजा उसका परित्याग कर देती है।

पितृपैतामहं राज्यं प्राप्तवान् स्वेन कर्मणा। वायुरभ्रमिवासाद्य भ्रंशयत्यनये स्थितः ॥

भावार्थ :

अन्याय के मार्ग पर चलने वाला राजा विरासत में मिले राज्य को उसी प्रकार से नष्ट कर देता है जैसे तेज हवा बादलों को छिन्न -भिन्न कर देती है।

अप्युन्मत्तात् प्रलपतो बालाच्च परिजल्पतः। सर्वतः सारमादद्यात् अश्मभ्य इव काञ्जनम् ॥

भावार्थ :

व्यर्थ बोलनेवाले ,मंदबुद्धि तथा बे -सिर -पैर की बोलनेवाले बच्चों से भी सारभूत बातों को ग्रहन कर लेना चाहिए जैसे पत्थरों में से सोने को ग्रहन कर लिया जाता है।

सुव्याहृतानि सुक्तानि सुकृतानि ततस्ततः। सञ्चिन्वन् धीर आसीत् शिलाहरी शिलं यथा ॥

भावार्थ :

जैसे साधु -सन्यासी एक -एक दाना जोड़कर जीवन निर्वाह करते हैं ,वैसे ही सज्जन पुरुष को चाहिए कि महापुरुषों की वाणी ,सूक्तियों तथा सत्कर्मों के आलेखों का संकलन करते रहना चाहिए।

गन्धेन गावः पश्यन्ति वेदैः पश्यन्ति ब्राह्मणाः। चारैः पश्यन्ति राजानश्चक्षुर्भ्यामितरे जनाः ॥

भावार्थ :

गायें गंध से देखती हैं ,ज्ञानी लोग वेदों से ,राजा गुप्तचरों से तथा जनसामान्य नेत्रों से देखते है।

यदतप्तं प्रणमति न तत् सन्तापयन्त्यपि। यश्च स्वयं नतं दारुं न तत् सत्रमयन्त्यपि ॥

भावार्थ :

जो धातु बिना गरम किए मुड़ जाती है ,उन्हें आग में तपने का कष्ट नहीं उठाना पड़ता। जो लकड़ी पहले से झुकी होती है ,उसे कोई नहीं झुकाता ।

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