Varn - Varn Prakaran - वरन प्रकरण

Varn - Varn Prakaran - वरन प्रकरण संस्कृत व्याकरण में

वर्ण क्या है ? | वर्ण के प्रकार | स्वर और व्यञ्जन क्या है ? | उच्चारण स्थान

वर्ण - वरन प्रकरण

वर्ण ➭ शब्द का वह खण्ड जिसका फिर टुकड़ा न हो सके, वर्ण कहलाता है । टुकड़ा हो सकने की स्थिति में इन्हें अक्षर कहते हैं । जैसे – क = क् + अ । वस्तुतः व्यवहार में वर्ण और अक्षर में कोई अन्तर नहीं किया जाता ।

वर्ण दो प्रकार के होते हैं :-

  1. स्वर ➭ स्वर जिस वर्ण का उच्चारण बिना किसी अन्य वर्ण की सहायता से होता है, उसे स्वर वर्ण कहते हैं । इनकी संख्या 13 है। स्वर वर्ण दो प्रकार के होते हैं -

    • मूल-स्वर इन्हें ह्रस्व-स्वर भी कहते हैं । जैसे अ, इ, उ, ऋ, ल = ५ । इनके उच्चारण में एक मात्रा का समय लगता है।

    • सन्धि-स्वर किसी-न-किसी सन्धि के आधार पर दो मूल-स्वरों से बने हुए स्वरों को सन्धि-स्वर कहते हैं । इसे अच् सन्धि भी कहते हैं । जैसे-आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, ऋ = ८ । आ, ई और ऊ स्वरों में दीर्घ-सन्धि होने से इन्हें दीर्घ-स्वर भी कहते हैं । सभी सन्धि-स्वरों में दो मात्रा के उच्चारण का समय लगता है ।

  2. व्यञ्जन ➭ जिन वर्णों को हम बिना स्वर की सहायता से नहीं बोल सकते हैं उन्हें व्यञ्जन वर्ण कहते हैं। 'क' में दो वर्ण हैं-'क्' और 'अ' । 'क्' व्यंजन है और 'अ' स्वर । क् से लेकर ह तक ३३ व्यञ्जन वर्ण हैं । क्ष, त्र, ज्ञ, संयुक्त व्यञ्जन वर्ण हैं । 'व्यञ्जयन्ति अर्थात् प्रकटी कुर्वन्तीति व्यञ्जनानि । व्यञ्जन वर्ण 'दो प्रकार के होते हैं -
    • प्लुत-स्वर इसका कोई पृथक् संकेत-चिह्न नहीं है । जिसमें प्लुत-स्वर दिखाना होता है उसके सामने ३ लिख देते हैं । जोर से या देर तक चिल्लाने में प्लुत स्वर रहता है । इसके उच्चारण में ३ मात्रा का समय लगता है । खास कर वेदों तथा संगीत में प्लुत स्वर प्रयुक्त होते हैं । जैसे-हे राम ३ अत्र आगच्छ ।

      'एकमात्रो भवेद् ह्रस्व: द्विमात्रो दीर्घ उच्यते ।
      त्रिमात्रश्च प्लुतो ज्ञेयो व्यञ्जनम् चार्धमात्रकम् ।।'


    • स्पर्श - वर्ण कवर्ग, चवर्ग, टवर्ग, तवर्ग और पवर्ग के 25 वर्ण स्पर्श वर्ण हैं । “(कादयोमावसानाः स्पर्शा:)"

    • घोष-वर्ण - पाँचों वर्गों के तृतीय, चतुर्थ और पञ्चम वर्ण तथा य्, र्, ल्, व् और ह् घोष-वर्ण हैं ।

    • अघोष-वर्ण - सभी वर्गों के प्रथम और द्वितीय वर्ण तथा श्, ष्, स् को अघोष-वर्ण कहते हैं ।

    • अल्पप्राण - सभी वर्गों के प्रथम, तृतीय और पंचम वर्ण तथा य, र, ल, व्, अल्पप्राण हैं।

    • महाप्राण - सभी वर्गों के द्वितीय और चतुर्थ वर्ण तथा श्, ष्, स्, ह, महाप्राण हैं ।

    • अन्त:स्थ - य, र, ल, व् को अन्तःस्थ वर्ण कहते हैं।

    • उष्मवर्ण - श्, ष, स्, ह उष्म वर्ण हैं।

    • अयोगवाह - अनुस्वार और विसर्ग को अयोगवाह कहते हैं ।

    • प्रत्याहार- आचार्य पाणिनि के १४ सूत्रों के आधार पर प्रत्याहार की रचना की जाती है । प्रत्याहार में दो वर्ण होते हैं । अन्तिम वर्ण किसी-न- -किसी पाणिनि सूत्र का अन्तिम हल् वर्ण होता है और प्रथम वर्ण उस हल् वर्ण से पूर्व कहीं-कहीं मौजूद रहता है । प्रथम वर्ण हल्-वर्ण नहीं होता और प्रथम वर्ण से लेकर अन्तिम हल्-वर्ण के बीच आनेवाले वर्ण प्रत्याहार में आते हैं । हल्-वर्णों को प्रत्याहार में नहीं गिना जाता । पाणिनि के 14 सूत्र निम्नलिखित हैं -1. अइउण् 2. ऋलुक्, 3. एओङ, 4. ऐऔच् 5. हयवरट् 6.लण् 7.ञमङणनम् 8.झभञ् 9.घढधष् 10.जबगडदश् 11.खफछठथचटतव् 12.कपय् 13.शषसर् 14.हल् ।

      कुछ उदाहरण देखें यहाँ नीचे जो आपको समझने करेगी :-

      अक् - अ इ उ ऋ ल क् । प्रथम सूत्र के प्रारम्भ में 'अ' है और द्वितीय सूत्र में के अन्त हल् क् है । इन दोनों के बीच के अक्षर अक् प्रत्याहार के अन्दर आते हैं ।

      अच् - अ इ उ ऋ ल ए ओ ऐ औ ।

      इक् - इ उ ऋ लु।

      यण - य व र ल ।

      शल - श ष स ह।

      जश् - ज ब ग ड द ।

      इसी प्रकार निम्नलिखित प्रत्याहार बनेंगे -

      अट्, अण्, इण्, उक्, एङ, एच, खर्, ङम्, चर्, जस्, झञ्, झर्, झल्, जश्, झष्, यञ्, शर्, हस्, हल्, आदि 42 प्रत्याहार हैं।

उच्चारण स्थान संस्कृत में - Pronunciation Space In sanskrit

उच्चारण स्थान - हृदय से निकली हुई प्राणवायु हमारे मुख में उपस्थित ध्वनि-यन्त्रों (कण्ठ, तालु, ओष्ठ आदि) से टकराती है और विभिन्न ध्वनियों की सृष्टि करती है । जिस स्थान को यह प्राणवायु स्पर्श करती है; वही वर्ण-विशेष का उच्चारण स्थान है । ये निम्नलिखित हैं -

क - अकुहविसर्जनीयानां कण्ठः - अ, आ, कवर्ग और विसर्ग का कण्ठ-स्थान है । अतः ये कण्ठ्य हैं।

ख - इचुयशानां तालु – इ, ई, चवर्ग, य और श का तालु-स्थान है । ये तालव्य हैं ।

ग - ऋटुरषाणां मूर्धा – ऋ, ऋ, टवर्ग, र और ष का मूर्धा-स्थान है । ये मूर्धन्य हैं।

घ- लुतुलसानां दन्ता – लु, ल, तवर्ग, ल और स का दन्त-स्थान है । ये दन्त्य हैं

ङ - उपूपध्मानीयानाम् औष्ठी – उ, ऊ, पवर्ग उपध्मानीय अर्थात् प, फ का ओष्ठ-स्थान हैं। ये ओष्ठ्य हैं।

च - ञमङणनानां नासिका च – ञ, म, ङ, ण और न का नासिका स्थान है । अतः ये अनुनासिक वर्ण हैं।

छ - एदैतो:कण्ठ-तालु – ए और ऐ का कण्ठ-तालु स्थान है।

ज - ओदौतो: कण्ठोष्ठम् – ओ और औ का कण्ठ- -ओष्ठ्य स्थान है ।

झ- वकारस्य दन्त्योष्ठम् – व का दन्त-ओष्ठ स्थान है।

प्रयत्न-विचार

वर्णों के उच्चारण के लिए कण्ठ-तालु आदि उच्चारण यन्त्रों से जो क्रिया की जाती है, उसे प्रयत्न कहते हैं। प्रयत्न दो प्रकार के होते हैं-आभ्यन्तर और बाह्य ।

आभ्यन्तर प्रयल

ध्वनि उत्पन्न होने के पहले वागिन्द्रिय द्वारा जो प्रयत्न किया जाता है उसे आभ्यन्तर प्रयत्न कहते हैं। आभ्यन्तर प्रयत्न के पाँच भेद हैं :-

  1. स्पृष्ट- सभी स्पर्श-वर्णों (क से म तक) का स्पृष्ट प्रयत्न होता है । इसके उच्चारण के साथ वागिन्द्रिय के उच्चारण-स्थान का स्पर्श होता है।

  2. ईषत्-स्पृष्ट - अन्तःस्थ वर्णों का ईषत्-स्पृष्ट प्रयत्न होता है । य, र, ल, व का स्वर और व्यञ्जन का मध्यवर्ती होने से अन्त:स्थ कहते हैं । इसमें वागिन्द्रिय कुछ बन्द रहती है।

  3. विवृत- सभी स्वर-वर्णों का विवृत प्रयत्न होता है । इसमें वागिन्द्रिय खुली रहती है।

  4. ईषत्-विवृत -उष्म- -वर्णों का (श, ष, स, ह) ईषत्-विवृत प्रयत्न होता है । इसमें वागिन्द्रिय कुछ खुली रहती है।

  5. संवृत - हस्व अकार का संवृत प्रयत्न होता है ।

बाह्य प्रयत्न

उच्चारण के अन्त के प्रयत्न को बाह्य प्रयत्न कहते हैं । इसके आठ भेद हैं-विवार, संवार, श्वास, नाद, अघोष, घोष, अल्पप्राण और महाप्राण ।

विवार, श्वास और अघोष - वर्गों का प्रथम तथा द्वितीय वर्ण अर्थात् क, ख, च, छ, ट, ठ, त, थ, प, फ तथा श, ष और स ये अघोष होते हैं । इनके उच्चारण में केवल श्वास का योग होता है इसलिए इनकी श्वास-संज्ञा भी है । इनके उच्चारण के समय कण्ठ खुला रहता है इसलिए इन्हें विवार भी कहा जाता है।

संवार, नाद और घोष - शेष व्यञ्जन तथा सभी स्वर, घोष कहे जाते हैं । इसके उच्चारण में नाद का योग होता है तथा कण्ठ मुंदा रहता है । अत: इन्हें संवार और नाद भी कहते हैं।

अल्पप्राण और महाप्राण-जिन वर्णों के उच्चारण में कम श्वास या प्राण-वायु लगे, उन्हें अल्पप्राण कहते हैं । जिनके उच्चारण में अधिक प्राण-वायु का प्रयोग किया जाता है, उन्हें महाप्राण कहते हैं । साधारणतः जिन व्यञ्जनों में हकार की ध्वनि सुनाई पड़ती है, उन्हें महाप्राण तथा अन्य को अल्पप्राण कहते हैं । अन्तःस्थ अल्पप्राण है और उष्म वर्ण महाप्राण । वर्गों का द्वितीय और चतुर्थ वर्ण महाप्राण होता है । रोमन लिपि में इनके लिए h जोड़ना पड़ता है। जैसे-ख (kh), घ (gh), छ (chh), ध (dh) इत्यादि ।

संयुक्त व्यञ्जन

जब दो व्यंजन वर्णों के बीच में स्वर वर्ण न रहे तब उन्हें संयुक्त व्यंजन कहते हैं । प्रमुख संयुक्त व्यंजन निम्नलिखित हैं ➭

(1) क्ष = क् + ष् + अ (2) त्र = त् + र् + अ

(3) ज्ञ = ज् + ञ + अ (4) द्य = द् + य्

(5) श्री = श् + र् + ई (6) १ = श् + ऋ + अ

(7) प्र = प् + र् + अ (8) क्त = क् + त् + अ

(9) त्त = त् + त् + अ (10) द्ध = द् + ध् + अ

वर्ण संयोजन

वर्णों को मिलाकर शब्द के रूप में लिखने के कार्य को वर्ण संयोजन कहते हैं। जैसे (1) क् + ष् + अ + त् + र् + इ + य् + अः = क्षत्रियः
(2) क् + अ + क् + ष् + आ = कक्षा
(3) व् + इ + ज् + ञ् + आ + न् + अ + म् = विज्ञानम्
(4) उ + द् + य् + ओ + ग् + अः = उद्योगः
(5) श् + र् + ई + म् + आ + न् = श्रीमान्
(6) श् + ऋ + ग् + आ + ल् + अः = शृगालः
(7) प् + र् + अ + ह् + आ + र् + अ + : = प्रहारः
(8) प् + र् + ए + म् + अ = प्रेम
(9) उ + क् + त् + अः = उक्तः
(10) प् + र् + अ + स् + इ + द् + ध + अः = प्रसिद्धः

वर्ण विश्लेषण

शब्द में प्रयोग की गयी ध्वनियों को अलग-अलग लिखने के कार्य को वर्ण विश्लेषण कहते हैं । जैसे - (1) निर्माणः = न् + इ + र् + म् + आ + ण + अः
(2) कर्तुम् = क् + अ + र् + त् + उ + म्
(3) वैज्ञानिकः = व् + ऐ + ज् + ञ् + आ + न् + इ + क् + अः
(4) पाक्षिकः = प् + आ + क् + ष् + इ + क + अः
(5) श्रुतवान् = श् + र् + उ + त् + अ + व् + आ + न्