Some Popular Slokas

Collection of popular slokas from various sanskrit scriptures and books. You may find them interesting. Most of them are full with teachings about life and it may be applicable in your life situations.

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तडागकृत् वृक्षरोपी इष्टयज्ञश्च यो द्विजः । एते स्वर्गे महीयन्ते ये चान्ये सत्यवादिनः ॥

भावार्थ :

तालाब बनवाने, वृक्षरोपण करने, अैर यज्ञ का अनुष्ठान करने वाले द्विज को स्वर्ग में महत्ता दी जाती है, इसके अतिरिक्त सत्य बोलने वालों को भी महत्व मिलता है ।

दातव्यं भोक्तव्यं धनविषये सञ्चयो न कर्तव्यः । पश्येह मधुकरिणां सञ्चितमर्थं हरन्त्यन्ये ॥

भावार्थ :

धन दूसरों को दिया जाना चाहिए, अथवा उसका स्वयं भोग करना चाहिए । किंतु उसका संचय नहीं करना चाहिए । ध्यान से देखो कि मधुमक्खियों के द्वारा संचित धन अर्थात् शहद दूसरे हर ले जाते हैं ।

दानं भोगं नाशस्तिस्रो गतयो भवन्ति वित्तस्य । यो न ददाति न भुङ्क्ते तस्य तृतिया गतिर्भवति ॥

भावार्थ :

धन की संभव नियति तीन प्रकार की होती है । पहली है उसका दान, दूसरी उसका भोग, और तीसरी है उसका नाश । जो व्यक्ति उसे न किसी को देता है और न ही उसका स्वयं भोग करता है, उसके धन की तीसरी गति होती है, अर्थात् उसका नाश होना है ।

लोभेन बुद्धिश्चलति लोभो जनयते तृषाम् । तृषार्तो दुःखमाप्नोति परत्रेह च मानवः ॥

भावार्थ :

लोभ से बुद्धि विचलित हो जाती है, लोभ सरलता से न बुझने वाली तृष्णा को जन्म देता है । जो तृष्णा से ग्रस्त होता है वह दुःख का भागीदार बनता है, इस लोक में और परलोक में भी ।

लोभात्क्रोधः प्रभवति लोभात्कामः प्रजायते । लोभान्मोहश्च नाशश्च लोभः पापस्य कारणम् ॥

भावार्थ :

लोभ से क्रोध का भाव उपजता है, लोभ से कामना या इच्छा जागृत होती है, लोभ से ही व्यक्ति मोहित हो जाता है, यानी विवेक खो बैठता है, और वही व्यक्ति के नाश का कारण बनता है । वस्तुतः लोभ समस्त पाप का कारण है ।

एवं च ते निश्चयमेतु बुद्धिर्दृष्ट्वा विचित्रं जगतः प्रचारम् । सन्तापहेतुर्न सुतो न बन्धुरज्ञाननैमित्तिक एष तापः ॥

भावार्थ :

इस संसार की विचित्र गति को देखकर आपकी बुद्धि यह निश्चित समझे कि मनुष्य के मानसिक कष्ट या संताप के लिए उसका पुत्र अथवा बंधु कारण नहीं है, बल्कि दुःख का असली निमित्त तो अज्ञान है ।

न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति । हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एव अभिवर्तते ॥

भावार्थ :

मनुष्य की इच्छा कामनाओं के अनुरूप सुखभोग से नहीं तृप्त होती है । यानी व्यक्ति की इच्छा फिर भी बनी रहती है । असल में वह तो और बढ़ने लगती है, ठीक वैसे ही जैसे आग में इंधन डालने से वह अधिक प्रज्वलित हो उठती है ।

संसारकटुवृक्षस्य द्वे फले अमृतोपमे । सुभाषितरसास्वादः सङ्गतिः सुजने जने ॥

भावार्थ :

संसार रूपी कड़ुवे पेड़ से अमृत तुल्य दो ही फल उपलब्ध हो सकते हैं, एक है मीठे बोलों का रसास्वादन और दूसरा है सज्जनों की संगति ।