वर्ण क्या है ? | वर्ण के प्रकार | स्वर और व्यञ्जन क्या है ? | उच्चारण स्थान
वर्ण ➭ शब्द का वह खण्ड जिसका फिर टुकड़ा न हो सके, वर्ण कहलाता है । टुकड़ा हो सकने की स्थिति में इन्हें अक्षर कहते हैं । जैसे – क = क् + अ । वस्तुतः व्यवहार में वर्ण और अक्षर में कोई अन्तर नहीं किया जाता ।
वर्ण दो प्रकार के होते हैं :-
'एकमात्रो भवेद् ह्रस्व: द्विमात्रो दीर्घ उच्यते ।
त्रिमात्रश्च प्लुतो ज्ञेयो व्यञ्जनम् चार्धमात्रकम् ।।'
प्रत्याहार- आचार्य पाणिनि के १४ सूत्रों के आधार पर प्रत्याहार की रचना की जाती है । प्रत्याहार में दो वर्ण होते हैं । अन्तिम वर्ण किसी-न- -किसी पाणिनि सूत्र का अन्तिम हल् वर्ण होता है और प्रथम वर्ण उस हल् वर्ण से पूर्व कहीं-कहीं मौजूद रहता है । प्रथम वर्ण हल्-वर्ण नहीं होता और प्रथम वर्ण से लेकर अन्तिम हल्-वर्ण के बीच आनेवाले वर्ण प्रत्याहार में आते हैं । हल्-वर्णों को प्रत्याहार में नहीं गिना जाता । पाणिनि के 14 सूत्र निम्नलिखित हैं -1. अइउण् 2. ऋलुक्, 3. एओङ, 4. ऐऔच् 5. हयवरट् 6.लण् 7.ञमङणनम् 8.झभञ् 9.घढधष् 10.जबगडदश् 11.खफछठथचटतव् 12.कपय् 13.शषसर् 14.हल् ।
कुछ उदाहरण देखें यहाँ नीचे जो आपको समझने करेगी :-
अक् - अ इ उ ऋ ल क् । प्रथम सूत्र के प्रारम्भ में 'अ' है और द्वितीय सूत्र में के अन्त हल् क् है । इन दोनों के बीच के अक्षर अक् प्रत्याहार के अन्दर आते हैं ।
अच् - अ इ उ ऋ ल ए ओ ऐ औ ।
इक् - इ उ ऋ लु।
यण - य व र ल ।
शल - श ष स ह।
जश् - ज ब ग ड द ।
इसी प्रकार निम्नलिखित प्रत्याहार बनेंगे -
अट्, अण्, इण्, उक्, एङ, एच, खर्, ङम्, चर्, जस्, झञ्, झर्, झल्, जश्, झष्, यञ्, शर्, हस्, हल्, आदि 42 प्रत्याहार हैं।
उच्चारण स्थान - हृदय से निकली हुई प्राणवायु हमारे मुख में उपस्थित ध्वनि-यन्त्रों (कण्ठ, तालु, ओष्ठ आदि) से टकराती है और विभिन्न ध्वनियों की सृष्टि करती है । जिस स्थान को यह प्राणवायु स्पर्श करती है; वही वर्ण-विशेष का उच्चारण स्थान है । ये निम्नलिखित हैं -
क - अकुहविसर्जनीयानां कण्ठः - अ, आ, कवर्ग और विसर्ग का कण्ठ-स्थान है । अतः ये कण्ठ्य हैं।
ख - इचुयशानां तालु – इ, ई, चवर्ग, य और श का तालु-स्थान है । ये तालव्य हैं ।
ग - ऋटुरषाणां मूर्धा – ऋ, ऋ, टवर्ग, र और ष का मूर्धा-स्थान है । ये मूर्धन्य हैं।
घ- लुतुलसानां दन्ता – लु, ल, तवर्ग, ल और स का दन्त-स्थान है । ये दन्त्य हैं
ङ - उपूपध्मानीयानाम् औष्ठी – उ, ऊ, पवर्ग उपध्मानीय अर्थात् प, फ का ओष्ठ-स्थान हैं। ये ओष्ठ्य हैं।
च - ञमङणनानां नासिका च – ञ, म, ङ, ण और न का नासिका स्थान है । अतः ये अनुनासिक वर्ण हैं।
छ - एदैतो:कण्ठ-तालु – ए और ऐ का कण्ठ-तालु स्थान है।
ज - ओदौतो: कण्ठोष्ठम् – ओ और औ का कण्ठ- -ओष्ठ्य स्थान है ।
झ- वकारस्य दन्त्योष्ठम् – व का दन्त-ओष्ठ स्थान है।
वर्णों के उच्चारण के लिए कण्ठ-तालु आदि उच्चारण यन्त्रों से जो क्रिया की जाती है, उसे प्रयत्न कहते हैं। प्रयत्न दो प्रकार के होते हैं-आभ्यन्तर और बाह्य ।
ध्वनि उत्पन्न होने के पहले वागिन्द्रिय द्वारा जो प्रयत्न किया जाता है उसे आभ्यन्तर प्रयत्न कहते हैं। आभ्यन्तर प्रयत्न के पाँच भेद हैं :-
उच्चारण के अन्त के प्रयत्न को बाह्य प्रयत्न कहते हैं । इसके आठ भेद हैं-विवार, संवार, श्वास, नाद, अघोष, घोष, अल्पप्राण और महाप्राण ।
विवार, श्वास और अघोष - वर्गों का प्रथम तथा द्वितीय वर्ण अर्थात् क, ख, च, छ, ट, ठ, त, थ, प, फ तथा श, ष और स ये अघोष होते हैं । इनके उच्चारण में केवल श्वास का योग होता है इसलिए इनकी श्वास-संज्ञा भी है । इनके उच्चारण के समय कण्ठ खुला रहता है इसलिए इन्हें विवार भी कहा जाता है।
संवार, नाद और घोष - शेष व्यञ्जन तथा सभी स्वर, घोष कहे जाते हैं । इसके उच्चारण में नाद का योग होता है तथा कण्ठ मुंदा रहता है । अत: इन्हें संवार और नाद भी कहते हैं।
अल्पप्राण और महाप्राण-जिन वर्णों के उच्चारण में कम श्वास या प्राण-वायु लगे, उन्हें अल्पप्राण कहते हैं । जिनके उच्चारण में अधिक प्राण-वायु का प्रयोग किया जाता है, उन्हें महाप्राण कहते हैं । साधारणतः जिन व्यञ्जनों में हकार की ध्वनि सुनाई पड़ती है, उन्हें महाप्राण तथा अन्य को अल्पप्राण कहते हैं । अन्तःस्थ अल्पप्राण है और उष्म वर्ण महाप्राण । वर्गों का द्वितीय और चतुर्थ वर्ण महाप्राण होता है । रोमन लिपि में इनके लिए h जोड़ना पड़ता है। जैसे-ख (kh), घ (gh), छ (chh), ध (dh) इत्यादि ।
जब दो व्यंजन वर्णों के बीच में स्वर वर्ण न रहे तब उन्हें संयुक्त व्यंजन कहते हैं । प्रमुख संयुक्त व्यंजन निम्नलिखित हैं ➭
(1) क्ष = क् + ष् + अ (2) त्र = त् + र् + अ
(3) ज्ञ = ज् + ञ + अ (4) द्य = द् + य्
(5) श्री = श् + र् + ई (6) १ = श् + ऋ + अ
(7) प्र = प् + र् + अ (8) क्त = क् + त् + अ
(9) त्त = त् + त् + अ (10) द्ध = द् + ध् + अ
वर्णों को मिलाकर शब्द के रूप में लिखने के कार्य को वर्ण संयोजन कहते हैं। जैसे
(1) क् + ष् + अ + त् + र् + इ + य् + अः = क्षत्रियः
(2) क् + अ + क् + ष् + आ = कक्षा
(3) व् + इ + ज् + ञ् + आ + न् + अ + म् = विज्ञानम्
(4) उ + द् + य् + ओ + ग् + अः = उद्योगः
(5) श् + र् + ई + म् + आ + न् = श्रीमान्
(6) श् + ऋ + ग् + आ + ल् + अः = शृगालः
(7) प् + र् + अ + ह् + आ + र् + अ + : = प्रहारः
(8) प् + र् + ए + म् + अ = प्रेम
(9) उ + क् + त् + अः = उक्तः
(10) प् + र् + अ + स् + इ + द् + ध + अः = प्रसिद्धः
शब्द में प्रयोग की गयी ध्वनियों को अलग-अलग लिखने के कार्य
को वर्ण विश्लेषण कहते हैं । जैसे -
(1) निर्माणः = न् + इ + र् + म् + आ + ण + अः
(2) कर्तुम् = क् + अ + र् + त् + उ + म्
(3) वैज्ञानिकः = व् + ऐ + ज् + ञ् + आ + न् + इ + क् + अः
(4) पाक्षिकः = प् + आ + क् + ष् + इ + क + अः
(5) श्रुतवान् = श् + र् + उ + त् + अ + व् + आ + न्