आस्ते भग आसीनस्योर्ध्वस्तिष्ठति तिष्ठतः । शेते निपद्यमानस्य चराति चरतो भगश्चरैवेति ॥
जो मनुष्य बैठा रहता है, उसका सौभाग्य (भग) भी रुका रहता है । जो उठ खड़ा होता है उसका सौभाग्य भी उसी प्रकार उठता है । जो पड़ा या लेटा रहता है उसका सौभाग्य भी सो जाता है । और जो विचरण में लगता है उसका सौभाग्य भी चलने लगता है । इसलिए तुम विचरण ही करते रहो ।
न दैवमपि सञ्चित्य त्यजेदुद्योगमात्मनः । अनुद्योगेन कस्तैलं तिलेभ्यः प्राप्तुमर्हति ॥
दैव यानी भाग्य का विचार करके व्यक्ति को कार्य-संपादन का अपना प्रयास त्याग नहीं देना चाहिए । भला समुचित प्रयास के बिना कौन तिलों से तेल प्राप्त कर सकता है ?
वाक्सायका वदनान्निष्पतन्ति यैराहतः शोचन्ति रात्र्यहानि । परस्य नामर्मसु ते पतन्ति तान् पण्डितो नावसृजेत परेषु ॥
कठोर वचन रूपी बाण दुर्जन लोगों के मुख से निकलते ही हैं, और उनसे आहत होकर अन्य जन रातदिन शोक एवं चिंता के घिर जाते हैं । स्मरण रहे कि ये वाग्वाण दूसरे के अमर्म यानी संवेदनाशून्य अंग पर नहीं गिरते, अतः समझदार व्यक्ति ऐसे वचन दूसरों के प्रति न बोले ।
नारुन्तुदः स्यान्न नृशंसवादी न हीनतः परमभ्याददीत । ययास्य वाचा पर उद्विजेत न तां वदेदुषतीं पापलोक्याम् ॥
दूसरे के मर्म को चोट न पहुंचाए, चुभने वाली बातें न बोले, घटिया तरीके से दूसरे को वश में न करे, दूसरे को उद्विग्न करने एवं ताप पहुंचाने वाली, पापी जनों के आचरण वाली बोली न बोले ।
अबुद्धिमाश्रितानां तु क्षन्तव्यमपराधिनाम् । न हि सर्वत्र पाण्डित्यं सुलभं पुरुषेण वै ॥
अनजाने में जिन्होंने अपराध किया हो उनका अपराध क्षमा किया जाना चाहिए, क्योंकि हर मौके या स्थान पर समझदारी मनुष्य का साथ दे जाए ऐसा हो नहीं पाता है । भूल हो जाना असामान्य नहीं, अतः भूलवश हो गये अनुचित कार्य को क्षम्य माना जाना चाहिए ।
सद्भिः पुरस्तादभिपूजितः स्यात् सद्भिस्तथा पृष्ठतो रक्षितः स्यात् । सदासतामतिवादांस्तितिक्षेत् सतां वृत्तं चाददीतार्यवृत्तः ॥
व्यक्ति के कर्म ऐसे हों कि सज्जन लोग उसके समक्ष सम्मान व्यक्त करें ही, परोक्ष में भी उनकी धारणाएं सुरक्षित रहें । दुष्ट प्रकृति के लोगों की ऊलजलूल बातें सह ले, और सदैव श्रेष्ठ लोगों के सदाचारण में स्वयं संलग्न रहे ।
दन्तकाष्ठस्य खेटस्य विसर्जनमपावृतम् । नेष्टं जले स्थले भोग्ये मूत्रादेश्चापि गर्हितम् ॥
दातौन एवं कफ थूकने के पश्चात् उसे ढक देना चाहिए । इतना ही नहीं पानी, सार्वजनिक भूमि एवं आवासीय स्थल पर मूत्र आदि का त्याग निंदनीय कर्म है, अतः ऐसा नहीं करना चाहिए ।
मुखपूरं न भुञ्जीत सशब्दं प्रसृताननम् । प्रलम्बपादं नासीत न बाहू मर्दयेत् समम् ॥
मुंह में ठूंसकर, चप-चप जैसी आवाज के साथ एवं मुख पूरा फैलाकर भोजन नहीं करना चाहिए । पैर फैलाकर बैठने से भी बचे और दोनों बांहों को साथ-साथ न मरोड़े ।
नाङ्गुल्या कारयेत् किञ्चिद् दक्षिणेन तु सादरम् । समस्तेनैव हस्तेन मार्गमप्येवमादिशेत् ॥
रास्ते के बारे में पूछने वाले पथिक को उंगली के इशारे से संकेत नहीं देना चाहिए, बल्कि समूचे दाहिने हाथ को धीरे-से समुचित दिशा की ओर उठाते हुए आदर के साथ रास्ता दिखाना चाहिए ।
अथ चेद् बुद्धिजं कृत्वा ब्रूयुस्ते तदबुद्धिजम् । पापान् स्वल्पेऽपि तान् हन्यादपराधे तथानृजून् ॥
अब यदि बुद्धि प्रयोग से यानी सोच-समझकर अपराध करने के बाद वे तुमसे कहें कि अनजाने में ऐसा हो गया है, तो ऐसे मृथ्याचारियों को थोड़े-से अपराध के लिए भी दण्डित किया जाना चाहिए ।