छायां ददाति शशिचन्दनशीतलां यः सौगन्धवन्ति सुमनांसि मनोहराणि । स्वादूनि सुन्दरफलानि च पादपं तं छिन्दन्ति जाङ्गलजना अकृतज्ञता हा ॥
जो वृक्ष चंद्रकिरणों तथा चंदन के समान शीतल छाया प्रदान करता है, सुन्दर एवं मन को मोहित करने वाले पुष्पों से वातावरण सुगंधमय बना देता है, आकर्षक तथा स्वादिष्ट फलों को मानवजाति पर न्यौछावर करता है, उस वृक्ष को जंगली असभ्य लोग काट डालते हैं । अहो मनुष्य की यह कैसी अकृतज्ञत है ।
हीयते हि मतिस्तात् , हीनैः सह समागतात् । समैस्च समतामेति , विशिष्टैश्च विशिष्टितम् ॥
हीन लोगों की संगति से अपनी भी बुद्धि हीन हो जाती है , समान लोगों के साथ रहने से समान बनी रहती है और विशिष्ट लोगों की संगति से विशिष्ट हो जाती है ।
यानि कानि च मित्राणि, कृतानि शतानि च । पश्य मूषकमित्रेण , कपोता: मुक्तबन्धना:॥
जो कोई भी हों , सैकडो मित्र बनाने चाहिये । देखो, मित्र चूहे की सहायता से कबूतर जाल के बन्धन से मुक्त हो गये थे ।
न द्वेष्टयकुशर्ल कर्म कुशले नातुषज्जजते। त्यागी सत्तसमाष्टिी मेघावी छिन्नसंशयः॥
जो मनुष्य अकुशल कर्म से तो द्वेष नहीं करता और कुशल कर्म में आसक्त नहीं होता- वह शुद्ध सत्वगुण से युक्त पुरुष संशय रहित, बुद्धिमान और सच्चा त्यागी है।
न क्रुद्ध्येन्न प्रहृष्येच्च मानितोऽमानितश्च यः । सर्वभूतेष्वभयदस्तं देवा ब्राह्मणं विदुः ॥
जो व्यक्ति सम्मान दिए जाने अथवा अपमान किये जाने पर न तो प्रसन्न होता है और न ही नाखुश, और जो सभी प्राणियों अभय देता है उसी को देवतागण ब्राह्मण कहते है ।
नाभिनन्देत मरणं नाभिनन्देत जीवितम् । कालमेव प्रतीक्षेत निदेशं भृतको यथा॥
संन्यासी न तो मृत्यु की इच्छा करता है और न ही जीवित रहने की कामना । वह बस समय की प्रतीक्षा करता है जैसे कि सेवक अपने स्वामी के निदेशों का ।
तस्मात्सान्त्वं सदा वाच्यं न वाच्यं परुषं क्वचित् । पूज्यान् सम्पूजयेद्दद्यान्न च याचेत् कदाचन ॥
अतः सदा ही दूसरों से सान्त्वनाप्रद शब्द बोले, कभी भी कठोर वचन न कहे । पूजनीय व्यक्तियों के सम्मान व्यक्त करे । दूसरों यथासंभव दे और स्वयं किसी से मांगे नहीं ।
न हीदृशं संवननं त्रिषु लोकेषु वर्तते । दया मैत्री च भूतेषु दानं च मधुरा च वाक ॥
प्राणियों के प्रति दया, सौहार्द्र, दानकर्म, एवं मधुर वाणी के व्यवहार के जैसा कोई वशीकरण का साधन तीनों लोकों में नहीं है ।