Some Popular Slokas

Collection of popular slokas from various sanskrit scriptures and books. You may find them interesting. Most of them are full with teachings about life and it may be applicable in your life situations.

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पुस्तकस्था तु या विद्या ,परहस्तगतं च धनम् । कार्यकाले समुत्तपन्ने न सा विद्या न तद् धनम् ॥

भावार्थ :

किताबों मे छपा अक्षर ज्ञान एवम दूसरों को दिया धन यह दोनों मुसीबत में कभी काम नहीं आते ।

सहसा विदधीत न क्रियामविवेकः परमापदां पदम् । वृणते हि विमृश्यकारिणं गुणलुब्धाः स्वयमेव संपदः ॥

भावार्थ :

जल्दबाजी में कोई कार्य नहीं करना चाहिए क्यूंकि बिना सोचे किया गया कार्य घर में विपत्तियों को आमंत्रण देता हैं । जो व्यक्ति सहजता से सोच समझ कर विचार करके अपना काम करते हैं लक्ष्मी स्वयम ही उनका चुनाव कर लेती हैं ।

वयसि गते कः कामविकारः,शुष्के नीरे कः कासारः। क्षीणे वित्ते कः परिवारः,ज्ञाते तत्त्वे कः संसारः ॥

भावार्थ :

आयु बीत जाने के बाद काम भाव नहीं रहता, पानी सूख जाने पर तालाब नहीं रहता, धन चले जाने पर परिवार नहीं रहता और तत्त्व ज्ञान होने के बाद संसार नहीं रहता ।

दिनयामिन्यौ सायं प्रातः,शिशिरवसन्तौ पुनरायातः। कालः क्रीडति गच्छत्यायुस्तदपि न मुन्च्त्याशावायुः॥

भावार्थ :

दिन और रात, शाम और सुबह, सर्दी और बसंत बार-बार आते-जाते रहते है काल की इस क्रीडा के साथ जीवन नष्ट होता रहता है पर इच्छाओ का अंत कभी नहीं होता है ।

विद्या मित्रं प्रवासेषु ,भार्या मित्रं गृहेषु च । व्याधितस्यौषधं मित्रं , धर्मो मित्रं मृतस्य च ॥

भावार्थ :

यात्रा के समय ज्ञान एक मित्र की तरह साथ देता हैं घर में पत्नी एक मित्र की तरह साथ देती हैं, बीमारी के समय दवाएँ साथ निभाती हैं अंत समय में धर्म सबसे बड़ा मित्र होता हैं ।

सत्संगत्वे निस्संगत्वं,निस्संगत्वे निर्मोहत्वं। निर्मोहत्वे निश्चलतत्त्वं,निश्चलतत्त्वे जीवन्मुक्तिः॥

भावार्थ :

सत्संग से वैराग्य, वैराग्य से विवेक, विवेक से स्थिर तत्त्वज्ञान और तत्त्वज्ञान से मोक्ष की प्राप्ति होती है ।

मा कुरु धनजनयौवनगर्वं,हरति निमेषात्कालः सर्वं। मायामयमिदमखिलम् हित्वा,ब्रह्मपदम् त्वं प्रविश विदित्वा॥

भावार्थ :

धन, शक्ति और यौवन पर गर्व मत करो, समय क्षण भर में इनको नष्ट कर देता है| इस विश्व को माया से घिरा हुआ जान कर तुम ब्रह्म पद में प्रवेश करो ।

योगरतो वाभोगरतोवा,सङ्गरतो वा सङ्गवीहिनः। यस्य ब्रह्मणि रमते चित्तं,नन्दति नन्दति नन्दत्येव॥

भावार्थ :

कोई योग में लगा हो या भोग में, संग में आसक्त हो या निसंग हो, पर जिसका मन ब्रह्म में लगा है वो ही आनंद करता है, आनंद ही करता है ।