Vidur Niti

Vidur Niti, mainly on the science of politics, is narrated in the form of a conversation between Vidur and King Dhritraashtra in the great epic Mahabharata.

Vidur was known for his wisdom, honesty and unwavering loyalty to the ancient Aryan kingdom of Hastinapur.

Here is some slokas of Vidur Niti :

Image of Vidur

एकमेवाद्वितीयम तद् यद् राजन्नावबुध्यसे। सत्यम स्वर्गस्य सोपानम् पारवारस्य नैरिव ॥

भावार्थ :

नौका में बैठकर ही समुद्र पार किया जा सकता है, इसी प्रकार सत्य की सीढ़ियाँ चढ़कर ही स्वर्ग पहुँचा जा सकता है, इसे समझने का प्रयास करें ।

एकः क्षमावतां दोषो द्वतीयो नोपपद्यते। यदेनं क्षमया युक्तमशक्तं मन्यते जनः ॥

भावार्थ :

क्षमाशील व्यक्तियों में क्षमा करने का गुण होता है, लेकिन कुछ लोग इसे उसके अवगुण की तरह देखते हैं । यह अनुचित है ।

सोऽस्य दोषो न मन्तव्यः क्षमा हि परमं बलम्। क्षमा गुणों ह्यशक्तानां शक्तानां भूषणं क्षमा ॥

भावार्थ :

क्षमा तो वीरों का आभूषण होता है । क्षमाशीलता कमजोर व्यक्ति को भी बलवान बना देती है और वीरों का तो यह भूषण ही है ।

एको धर्म: परम श्रेय: क्षमैका शान्तिरुक्तमा। विद्वैका परमा तृप्तिरहिंसैका सुखावहा ॥

भावार्थ :

केवल धर्म-मार्ग ही परम कल्याणकारी है, केवल क्षमा ही शांति का सर्वश्रेष्ट उपाय है, केवल ज्ञान ही परम संतोषकारी है तथा केवल अहिंसा ही सुख प्रदान करने वाली है ।

द्वविमौ ग्रसते भूमिः सर्पो बिलशयानिवं। राजानं चाविरोद्धारं ब्राह्मणं चाप्रवासिनम् ॥

भावार्थ :

जिस प्रकार बिल में रहने वाले मेढक, चूहे आदि जीवों को सर्प खा जाता है, उसी प्रकार शत्रु का विरोध न करने वाले राजा और परदेस गमन से डरने वाले ब्राह्मण को यह समय खा जाता है ।

द्वे कर्मणी नरः कुर्वन्नस्मिंल्लोके विरोचते। अब्रुवं परुषं कश्चित् असतोऽनर्चयंस्तथा ॥

भावार्थ :

जो व्यक्ति जरा भी कठोर नहीं बोलता हो तथा दुर्जनों का आदर-सत्कार न करता हो, वही इस संसार में सब से आदर-सम्मान पता है ।

द्वाविमौ कण्टकौ तीक्ष्णौ शरीरपरिशोषिणौ। यश्चाधनः कामयते यश्च कुप्यत्यनीश्चरः ॥

भावार्थ :

निर्धनता एवं अक्षमता के बावजूद धन-संपत्ति की इच्छा तथा अक्षम एवं असमर्थ होने के बावजूद क्रोध करना ये दोनों अवगुण शरीर में काँटों की तरह चुभकर उसे सुखाकर रख देते हैं ।

द्वाविमौ पुरुषौ राजन स्वर्गस्योपरि तिष्ठत: । प्रभुश्च क्षमया युक्तो दरिद्रश्च प्रदानवान् ॥

भावार्थ :

जो व्यक्ति शक्तिशाली होने पर क्षमाशील हो तथा निर्धन होने पर भी दानशील हो - इन दो व्यक्तियों को स्वर्ग से भी ऊपर स्थान प्राप्त होता है ।