Sanskrit is one of the official languages of India and is popularly known as a classical language of t.he country.
प्राचीनकाल में भारत की जनभाषा संस्कृत थी यह सभी लोग जानते हैं। संस्कृत का महत्व वर्तमान समय मे धीरे-धीरे बढ़ रहा है।
बहुत ही महत्वपूर्ण किताबें संस्कृत भाषा में है जिनमें लिखी बातें काफी सीख भड़ी हैं।
उन सभी महत्वपूर्ण ग्रंथों में जो कुछ प्रमुख श्लोकस है वो यहाँ पे संग्रह किया गया है उसके हिंदी अर्थ के साथ। प्रेरक श्लोकस संग्रह है ।
sanskritslokas.com वेबसाइट उपयोगी संस्कृत श्लोक (उद्धरण) का संग्रह है।
यहाँ सभी संस्कृत श्लोक को उसके हिंदी मीनिंग के साथ दिया गया है जो आपको श्लोक का मतलब समझने में मदद करेगी।
यावद्बध्दो मरुद देहे यावच्चित्तं निराकुलम्। यावद्द्रॄष्टिभ्रुवोर्मध्ये तावत्कालभयं कुत: ॥
जब तक शरीर में सांस रोक दी जाती है तब तक मन अबाधित रहता है और जब तक ध्यान दोनों भौहों के बीच लगा है तब तक मृत्यु से कोई भय नहीं है।
अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविन:। चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशोबलं ॥
बड़ों का अभिवादन करने वाले मनुष्य की और नित्य वृद्धों की सेवा करने वाले मनुष्य की आयु, विद्या, यश और बल ये हमेशा बढ़ती रहती है।
विद्या मित्रं प्रवासेषु,भार्या मित्रं गृहेषु च। व्याधितस्यौषधं मित्रं, धर्मो मित्रं मृतस्य च ॥
विदेश में ज्ञान, घर में अच्छे स्वभाव और गुणस्वरूप पत्नी, औषध रोगी का तथा धर्म मृतक का सबसे बड़ा मित्र होता है।
यस्मिन् देशे न सम्मानो न वृत्तिर्न च बान्धवाः। न च विद्यागमोऽप्यस्ति वासस्तत्र न कारयेत् ॥
ऐसा देश जहाँ पर कोई सम्मान नहीं हो, जीने के लिए कोई आजीविका नहीं मिले, कोई अपना भाई और बन्धु नहीं रहता हो, जहाँ पर विद्या ग्रहण करने की संभवना नहीं हो, ऐसे स्थान पर रहना नहीं चाहिए।
परस्वानां च हरणं परदाराभिमर्शनम्। सचह्रदामतिशङ्का च त्रयो दोषाः क्षयावहाः ॥
दूसरों के धन का अपहरण, पर स्त्री के साथ संसर्ग और अपने हितैषी मित्रों के प्रति घोर अविश्वास ये तीनों दोष जीवन का नाश करने वाले हैं।
निरपेक्षो निर्विकारो निर्भरः शीतलाशयः। अगाधबुद्धिरक्षुब्धो भव चिन्मात्रवासनः ॥
आप सुख साधन रहित, परिवतर्नहीन, निराकार, अचल, अथाह जागरूकता और अडिग हैं। इसलिए अपनी जाग्रति को पकड़े रहो।
देवो रुष्टे गुरुस्त्राता गुरो रुष्टे न कश्चन:। गुरुस्त्राता गुरुस्त्राता गुरुस्त्राता न संशयः ॥
भाग्य रूठ जाये तो गुरू रक्षा करता है। गुरू रूठ जाये तो कोई नहीं होता। गुरू ही रक्षक है, गुरू ही शिक्षक है, इसमें कोई संदेह नहीं।
पुस्तकस्था तु या विद्या,परहस्तगतं च धनम्। कार्यकाले समुत्तपन्ने न सा विद्या न तद् धनम् ॥
किसी पुस्तक में रखी विद्या और दूसरे के हाथ में गया धन। ये दोनों जब जरूरत होती है तब हमारे किसी भी काम में नहीं आती।