Sanskrit is one of the official languages of India and is popularly known as a classical language of t.he country.
प्राचीनकाल में भारत की जनभाषा संस्कृत थी यह सभी लोग जानते हैं। संस्कृत का महत्व वर्तमान समय मे धीरे-धीरे बढ़ रहा है।
बहुत ही महत्वपूर्ण किताबें संस्कृत भाषा में है जिनमें लिखी बातें काफी सीख भड़ी हैं।
उन सभी महत्वपूर्ण ग्रंथों में जो कुछ प्रमुख श्लोकस है वो यहाँ पे संग्रह किया गया है उसके हिंदी अर्थ के साथ। प्रेरक श्लोकस संग्रह है ।
sanskritslokas.com वेबसाइट उपयोगी संस्कृत श्लोक (उद्धरण) का संग्रह है।
यहाँ सभी संस्कृत श्लोक को उसके हिंदी मीनिंग के साथ दिया गया है जो आपको श्लोक का मतलब समझने में मदद करेगी।
विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभ्य सह। अविद्यया मृत्युं तीर्त्वाऽमृतमश्नुते ॥
जो दोनों को जानता है, भौतिक विज्ञान के साथ-साथ आध्यात्मिक विज्ञान भी, पूर्व से मृत्यु का भय अर्थात् उचित शारीरिक और मानसिक प्रयासों से और उतरार्द्ध अर्थात् मन और आत्मा की पवित्रता से मुक्ति प्राप्त करता है।
न कश्चित कस्यचित मित्रं न कश्चित कस्यचित रिपु:। व्यवहारेण जायन्ते, मित्राणि रिप्वस्तथा ॥
न कोई किसी का मित्र होता है, न कोई किसी का शत्रु। व्यवहार से ही मित्र या शत्रु बनते हैं।
अधमाः धनमिच्छन्ति धनं मानं च मध्यमाः। उत्तमाः मानमिच्छन्ति मानो हि महताम् धनम् ॥
निम्न कोटि के लोग सिर्फ धन की इच्छा रखते हैं। मध्यम कोटि का व्यक्ति धन और सम्मान दोनों की इच्छा रखता है। वहीं एक उच्च कोटि के व्यक्ति के लिए सिर्फ सम्मान ही मायने रखता है। सम्मान से अधिक मूल्यवान है।
सत्यं रूपं श्रुतं विद्या कौल्यं शीलं बलं धनम्। शौर्यं च चित्रभाष्यं च दशेमे स्वर्गयोनयः ॥
स्तय, विनय, शास्त्रज्ञान, विद्या, कुलीनता, शील, बल, धन, शूरता और वाक्पटुता ये दस लक्षण स्वर्ग के कारण हैं।
यत्र स्त्री यत्र कितवो बालो यत्रानुशासिता। मज्जन्ति तेवशा राजन् नद्यामश्मप्लवा इव ॥
जहां का शासन स्त्री, जुआरी और बालक के हाथ में होता है। वहां के लोग नदी में पत्थर की नाव में बैठने वालों की भांति विवश होकर विपत्ति के समुद्र में डूब जाते हैं।
अपि मेरुसमं प्राज्ञमपि शुरमपि स्थिरम्। तृणीकरोति तृष्णैका निमेषेण नरोत्तमम् ॥
भले ही कोई व्यक्ति मेरु पर्वत की तरह स्थिर, चतुर, बहादुर दिमाग का हो लालच उसे पल भर में घास की तरह खत्म कर सकता है।
यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा, शास्त्रं तस्य करोति किं। लोचनाभ्याम विहीनस्य, दर्पण:किं करिष्यति ॥
जिस व्यक्ति के पास स्वयं का विवेक नहीं है। शास्त्र उसका क्या करेगा? जैसे नेत्रहीन व्यक्ति के लिए दर्पण व्यर्थ है।
दयाहीनं निष्फलं स्यान्नास्ति धर्मस्तु तत्र हि। एते वेदा अवेदाः स्यु र्दया यत्र न विद्यते ॥
बिना दया के किये गये काम में कोई फल नहीं मिलता, ऐसे काम में धर्म नहीं होता जहां दया नहीं होती। वहां वेद भी अवेद बन जाते हैं।