Sanskrit is one of the official languages of India and is popularly known as a classical language of t.he country.
प्राचीनकाल में भारत की जनभाषा संस्कृत थी यह सभी लोग जानते हैं। संस्कृत का महत्व वर्तमान समय मे धीरे-धीरे बढ़ रहा है।
बहुत ही महत्वपूर्ण किताबें संस्कृत भाषा में है जिनमें लिखी बातें काफी सीख भड़ी हैं।
उन सभी महत्वपूर्ण ग्रंथों में जो कुछ प्रमुख श्लोकस है वो यहाँ पे संग्रह किया गया है उसके हिंदी अर्थ के साथ। प्रेरक श्लोकस संग्रह है ।
sanskritslokas.com वेबसाइट उपयोगी संस्कृत श्लोक (उद्धरण) का संग्रह है।
यहाँ सभी संस्कृत श्लोक को उसके हिंदी मीनिंग के साथ दिया गया है जो आपको श्लोक का मतलब समझने में मदद करेगी।
यद्यत्संद्दश्यते लोके सर्वं तत्कर्मसम्भवम्। सर्वां कर्मांनुसारेण जन्तुर्भोगान्भुनक्ति वै ॥
लोगों के बीच जो सुख या दुःख देखा जाता है कर्म से पैदा होता है। सभी प्राणी अपने पिछले कर्मों के अनुसार आनंद लेते हैं या पीड़ित होते हैं।
स्तस्य भूषणम दानम, सत्यं कंठस्य भूषणं। श्रोतस्य भूषणं शास्त्रम,भूषनै:किं प्रयोजनम ॥
हाथ का आभूषण दान है, गले का आभूषण सत्य है, कान की शोभा शास्त्र सुनने से है, अन्य आभूषणों की क्या आवश्यकता है।
येषां न विद्या न तपो न दानं ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः। ते मर्त्यलोके भुविभारभूता मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति ॥
जिस मनुष्यों में विद्या का निवास है, न मेहनत का भाव, न दान की इच्छा और न ज्ञान का प्रभाव, न गुणों की भिव्यक्ति और न धर्म पर चलने का संकल्प, वे मनुष्य नहीं वे मनुष्य रूप में जानवर ही धरती पर विचरते हैं।
निश्चित्वा यः प्रक्रमते नान्तर्वसति कर्मणः। अवन्ध्यकालो वश्यात्मा स वै पण्डित उच्यते ॥
जिसके प्रयास एक दृढ़ प्रतिबध्दता से शुरू होते हैं जो कार्य पूर्ण होने तक ज्यादा आराम नहीं करते हैं जो समय बर्बाद नहीं करते हैं और जो अपने विचारों पर नियन्त्रण रखते हैं वह बुद्धिमान है।
दुर्जन:परिहर्तव्यो विद्यालंकृतो सन। मणिना भूषितो सर्प:किमसौ न भयंकर: ॥
दुष्ट व्यक्ति यदि विद्या से सुशोभित भी तो अर्थात् वह विद्यावान भी हो तो भी उसका परित्याग कर देगा। चाहिए जैसे मणि से सुशोभित सर्प क्या भयंकर नहीं होता?
मूर्खशिष्योपदेशेन दुष्टास्त्रीभरणेन च। दुःखितैः सम्प्रयोगेण पण्डितोऽप्यवसीदति ॥
मुर्ख शिष्यों को पढ़ाकर, दुष्ट स्त्री के साथ अपना जीवन बिताकर, रोगियों और दुखियों के साथ रहकर विद्वान भी दुखी हो जाता है।
स जातो येन जातेन याति वंशः समुन्नतिम्। परिवर्तिनि संसारे मृतः को वा न जायते ॥
संसार में जन्म मरण का चक्र चलता ही रहता है। लेकिन जन्म लेना उसका सफल है। जिसके जन्म से कुल की उन्नति हो।
सहसा विदधीत न क्रियामविवेकः परमापदां पदम्। वृणते हि विमृश्यकारिणं गुणलुब्धाः स्वयमेव संपदः ॥
हमें अचानक आवेश या जोश में आकर कोई काम नहीं करना चाहिए। क्योंकि विवेक हीनता सबसे बड़ी विपतियों का कारण होती है। इसके विपरीत जो व्यक्ति सोच समझकर कार्य करता है। गुणों से आकृष्ट होने वाली मां लक्ष्मी स्वयं ही उसका चुनाव कर लेती है।